एक जज़ीरा हरा भरा इस जहां में है कहीं
एक खाती पीती गाय उसमें अकेली है वहीँ
रात होते तक वो सारा जंगल चर जाती है
और मोटी, और तगड़ी और बड़ी हो जाती है
सोच कर रात में की कल खाऊँगी क्या माल
हो जाती है पतली ग़म में जैसे सर का बाल
सुबह आने पर जंगल फिर हरा हो जाता है
हरी घास और चारा कमर तक उग आता है
भूख लेकर गाय घुस जाती है उसके अंदर
रात के पहले चर जाती है सब इधर उधर
फिर और मोटी, और तगड़ी और बड़ी हो जाती
चर्बी भर जाती जिस्म में, और ताकत आ जाती
फिट रात में आता है बुखार डर के मारी
भूख के खौफ से होती मरियल वो बेचारी
की कल क्या खाऊँगी मैं खाने के वक़्त पर
सालों से बुद्धू गाय काट रही इसी में चक्कर
गाय सोचती कभी नहीं की मैं कितने साल से
खा रही हूँ इन हरे जंगल और फैले बुगियाल से
की मेरी खुराक किसी दिन पड़ती नहीं है कम
तो क्यों ये खौफ, ये ग़म और दिल की जलन
तो हर रोज़ के बाद आती है रात और मोटी गाय
हो जाती है पतली की ख़त्म हो गया चारा हाय
वो जंगल है ये तुरिया और है नफ़्स वो गाय
जो भूख के डर से रोज़ रात पतली हुयी जाय
हैरान रहती है की कल जो आएगा खाऊँगी कैसे
कल की उठने वाली भूख को मिटाउंगी कैसे
सालों से खा रहे हो अब तक नहीं कम हुआ
उस कल की फ़िक्र छोड़ो देख जो पहले हुआ
क्या क्या खा चुके, पी चुके हो उसे कर याद
आगे की सोच बंद कर और कम कर फ़रियाद
- मौलाना मोहम्मद जलालुद्दीन रूमी